विभिन्न रामायण एवं गीता >> श्री रामचरित मानस श्री रामचरित मानसगोस्वामी तुलसीदास
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भगवान राम जी के जीवन पर आधारित तुलसीदास कृत रामचरितमानस
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मंगल भवन अमंगल हारी यह ग्रन्थ जहाँ हिन्दुओं के लिए वेद के समान आदर्णीय
है, वहीं इस्लाम धर्मावलम्बियों के लिए कुरान के समान प्रणम्य भी है।
इसलिए तत्कालीन कवि अब्दुल रहीम खानखाना ने भी कहा था कि रामचरितमानस विमल जन जीवन को प्राण, हिन्दुआन को वेद सम जवनहि प्रकट कुरान। मेरी दृष्टि में
तो श्रीरामचरितमानस साक्षात् श्रीसीताराम जी ही हैं, क्योंकि चार हजार से
अधिक मौखिक पाठ करने पर भी मानस जी मुझे निरन्तर नये ही लगते हैं। नवीनता
का नैरन्तर्य ही तो परमेश्वर का स्वरूप है।
पुरोवाक्
श्री सीतारामाभ्याम् नमः
श्रीरामचरित मानस भारतीय संस्कृति का वाहक महाकाव्य ही नहीं अपितु
विश्वजनीन आचारशास्त्र का बोधक महान् ग्रन्थ भी है। मानव धर्म के
सिद्धान्तों के प्रयोगात्मक पक्ष का आदर्श रूप प्रस्तुत करने वाला यह
ग्रन्थरत्न नाना पुराण निगमागम सम्मत, लोकशास्त्र काव्यावेक्षणजन्य
स्वानुभूति पुष्ट प्रातिभ चाक्षुष विषयीकृत जागतिक एवं पारमार्थिक
तत्त्वों का सम्यक् निरूपण करता है।
सामान्य धर्म, विशिष्ट धर्म तथा आपद्धर्म के विभिन्न रूपों की अवतारणा इसकी विशेषता है। पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, गुरुधर्म, शिष्यधर्म, भ्रातृधर्म, मित्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, शत्रुधर्म प्रभृति जागतिक सम्बन्धों के विश्लेषण के साथ ही साथ सेवक-सेव्य, पूजक-पूज्य, एवं आराधक-आर्राध्य के आचरणीय कर्तव्यों का सांगोपांग वर्णन इस ग्रन्थ रत्न में प्राप्त होता है। यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास ने स्वान्तः सुखाय की प्रतिज्ञापूर्वक इसकी रचना की बात स्वीकार की है किन्तु उसका ‘स्व’ निःसीम है जिसमें सारा ब्रह्माण्ड समाहित हो जाता है। यही कारण है कि स्वं-स्वंचरित्रं शिक्षेरन् पृथ्वियां सर्व मानवाः के अनुसार स्त्री-पुरुष आवृद्ध-बाल-युवा निर्धन, धनी, शिक्षित, अशिक्षित, गृहस्थ, संन्यासी सभी इस ग्रन्थ रत्न का आदरपूर्वक परायण करते हैं। विभिन्न शास्त्रों में वर्णित नाना करणीय-अकरणीय कर्मों का स्वरूप सरल भाषा में एक ही ग्रन्थ में उपन्यस्त करके लोक-मंगलकारी ‘रामादिवत् न रावणादिवत्’ का उपदेश कान्तासम्मित शैली में दिया गया है।
सामान्य धर्म, विशिष्ट धर्म तथा आपद्धर्म के विभिन्न रूपों की अवतारणा इसकी विशेषता है। पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, गुरुधर्म, शिष्यधर्म, भ्रातृधर्म, मित्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, शत्रुधर्म प्रभृति जागतिक सम्बन्धों के विश्लेषण के साथ ही साथ सेवक-सेव्य, पूजक-पूज्य, एवं आराधक-आर्राध्य के आचरणीय कर्तव्यों का सांगोपांग वर्णन इस ग्रन्थ रत्न में प्राप्त होता है। यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास ने स्वान्तः सुखाय की प्रतिज्ञापूर्वक इसकी रचना की बात स्वीकार की है किन्तु उसका ‘स्व’ निःसीम है जिसमें सारा ब्रह्माण्ड समाहित हो जाता है। यही कारण है कि स्वं-स्वंचरित्रं शिक्षेरन् पृथ्वियां सर्व मानवाः के अनुसार स्त्री-पुरुष आवृद्ध-बाल-युवा निर्धन, धनी, शिक्षित, अशिक्षित, गृहस्थ, संन्यासी सभी इस ग्रन्थ रत्न का आदरपूर्वक परायण करते हैं। विभिन्न शास्त्रों में वर्णित नाना करणीय-अकरणीय कर्मों का स्वरूप सरल भाषा में एक ही ग्रन्थ में उपन्यस्त करके लोक-मंगलकारी ‘रामादिवत् न रावणादिवत्’ का उपदेश कान्तासम्मित शैली में दिया गया है।
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